।। स्वाभिमान ।।
आचार्य मानतुंग कृत भक्तामर स्तोत्र
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मत्वेति नाथ तव संस्तवनं मयेद-
मारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात्।
चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु,
मुक्ता-फल-द्युतिमुपैति ननूदबिन्दुः।।8।।
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अन्वयार्थ- (नाथ) हे स्वामिन्! (इतिमत्वा) ऐसा मानकर (इदं) यह (तव) आपका (संस्तवनम्) स्तवन (मया तनुधिया अपि) मुझ मन्द बुद्धि के द्वारा भी (आरभ्यते) आरम्भ किया जाता है। जो कि (तव प्रभावात्) अपके प्रभाव से (सताम्) सज्जनों के (चेतः) चित्त-मन को (हरिष्यति) हरेगा (ननु) निश्चय से (नलिनीदलेषु) कमलिनी के पत्तो पर (उदबिन्दुः) पानी की बूंद (मुक्ताफलद्युतिम्) मोती समान-कान्ति को (उपैति) प्राप्त होती है।

भावार्थ-हे नाथ! जिस तरह कमलिनियों के पत्तों पर पड़ी हुई पानी की बूंदें मोती के समान सुन्दर दिखकर लोगों के चित्त को हरती हैं उसी तरह मुझ अल्पज्ञ के द्वारा की हुई स्तुति भी आपके प्रभाव से सज्जनों के चित्त को हरेगी।

प्रश्न - 1 यहां श्लोक में आचार्य का स्वाभिमान दरशाइये?

उत्तर- हे प्रभो, यद्यपिम ैं अल्पज्ञानी हूं फिर भी मेरी स्तुति इतनी श्रेष्ठ होगी जो सज्जनों के मन को करण करेगी।

प्रश्न - 2 कमलिनी के पत्ते पर गिरा जल का बिन्दु कैसा दिखता है?

उत्तर- मोती के समान दिखता है और चित्त को हर लेता है।